साकार और निराकार सिद्धि होने के बाद, इन्हें आत्मज्ञान हुआ। पूर्ण जागृति हुई। ‘‘27’’ ब्रहमांड., इन्होने पार किए, गुरू ने स्वंय हाथ पकड़ कर पार करवाऐ। नानक जी, मीराबाई, दादु, नितयानंद, कबीरदास, गरीबदास, तुलसीदास इत्यादि संतों की चढ़ाई = 21 ब्रहमांड है। ये सभी जीवनमुक्त आत्माऐं है। महात्मा बुद्ध की चढ़ाई = 11 ब्रहमांड है। महुम्मद साहब की चढ़ाई = 7 ब्रहमांड. है। गुरूगोरखनाथ जी की चढ़ाई = 8 ब्रहमांड है। यहाँ से पता चलता है कि इनकी चढ़ाई कितनी ज्यादा है, इस चढ़ाई के दौरान इनका सामना सभी संतों से हुआ नानक जी, नित्यानंद जी, कबीर, महात्माबुद्ध सभी से प्रेमपूर्वक मुलाकात हुई। ‘‘गुरूपद की प्राप्ति’’:- सन् 2009 के अंदर, ब्रदीनाथ में ये घोर तपस्या में लीन थे, 20 जून 2009, को जब ये समाधि में लीन थे, ‘‘भगवान नारायण’’ प्रकट हुए, और इन्हें ‘‘‘जगतगुरू’’ का पद सौंप दिया। आकाषवाणी हुई - आज से, अभी से तुम ‘‘जगतगुरू’’ हो जाओ और लोगों को जाग्रत करो। धर्म की संस्थापना करो, अधर्म का विनाश करो। उस समय अनेको बडे- बड़े तपस्वी, सिद्ध महात्मा इस दौड़ में शामिल थे, कि वे इस पद के अधिकारी हैं, परंतु भगवान नारायण ने इन्हें चुना। क्योंकि इनकी ये भी इच्छा नहीं थी कि ये गुरू बने और ऐसे ही निष्कामी संत की आवश्यकता थी, जो समाज के बीचों-बीच रहकर, इस संसार में रहकर लोगों को जगा सके। जो अध्यात्म को एक अलग दिशा दे सके जो ऐसे मानव का निर्माण कर सके जो समाज में रहता हुआ, अध्यात्म के शिखर को छू सके।
ब्राहमण पद की प्राप्ति:-
‘‘जगतगुरु’’ का पद मिलने से पहले पूरे ब्रहमांड. में चर्चा चल रही कि एक क्षत्रिय परिवार में जन्में और इनती छोटी उम्र में (26 साल) किसी को जगतगुरु का पद कैसे सौंपा जा सकता है। परंतु इनके गुरू श्री कृष्ण जी की इन पर इनती ज्यादा मेहर थी, कृपा थी कि वो इन्हें ही सौंपना चाहते थे। बैषाखी पूर्णिमा, 2009 को अप्रैल के महीने में साक्षात् ‘‘भगवान परशुराम’’ प्रकट हुए और इन्हें ब्राहमण पद दिया। और कहा कि मैं तुम्हें अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करता हूँ। बस अब किसी बात की कोई देरी नही थी, 20 जून 2009 को इन्हें जगत् गुरू का पद सौंप दिया गया, स्वंय भगवान नारायण द्वारा। केवल अपने गुरू के आदेश का पालन किया, इसलिऐं इन्होंने ये पद स्वीकार किया। लेकिन इन्होंने ये ठान लिया कि हम शिष्य नहीं बनाऐंगे। क्योंकि ये नहीं चाहते थे कि दुनिया इन्हें जाने, क्योंकि अपने आप में ही इनते मस्त मगन रहते थे, इतने आनंदित, हर वक्त प्रभु के नशे में मदहोश रहते थे। जून 2009 से सन् 2013 तक ये अज्ञात रहे किसी को पता नहीं चलने दिया कि ज्ञान का दीपक जल चुका है, हृदय में भक्ति मणि का उदय हो चुका है बिल्कुल साधारण बनकर संसार की भीड में छिपे रहे। गुरू ने बार-2 आदेश दिया, विनम्र निवेदन भी किया, परंतु ये बातों को घुमाते रहे। और आनंद में डूबे रहे। अब इनके गुरू ने ऐसी चाल चली की परिस्थिति पैदा करनी शुरू कर दी, क्योंकि उन्होंने देख लिया ये ऐसे नहीं मानेगा। ये जहाँ भी खड़े होते, आस-पास का माहौल चेंज होने लगता। लोगों का खिचाव बनने लगा, सबको लगता कि खास बात है कुछ, पर समझ में नहीं आ रहा था कि क्या विशेष है। अततः अगस्त, 2013 में इन्होंने अपने गुरू के आदेष का पालन करते हुए तख्तोताज पर बैठना आरम्भ कर दिया लोगों के दुख दूर करने आरम्भ किए और धर्म का प्रचार करना आरम्भ किया।
शब्द, निशान और ध्वजा की प्राप्ति :-
गुरू पद मिलने के बाद इन्हें ‘‘अलग शब्द की प्राप्ति हुई’’, ‘‘अलग निशान मिला’’ और ‘‘अलग ध्वजा का रंग’’ मिला।