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संत शिरोमणि जगतगुरू रणदीप जी का परिचय

संत शिरोमणि जगतगुरू रणदीप जी का परिचयः-

गुरूदेव जी का जन्म 2 अक्तूबर 1983 दिन रविवार सुबह 5 बजे, गाँव गतौली (जींद) हरियाणा में एक ‘‘क्षत्रिय’’ परिवार में हुआ। इनके पिता जी का नाम जसवंत और माता का नाम निर्मला देवी है। इनका जन्म एक जमीदार परिवार में हुआ। इनकी प्राथमिक शिक्षा गाँव गतौली से ही हुई और बारहवीं तक की पढ़ाई गाँव सामलौकलां से पूरी हुई। इन्होंने ग्रेजुएशन की पढ़ाई बी.ए.(संस्कृत) रोहतक से पूरी की क्योंकि इन्होंने वेदों का अध्ययन करना चाहा। पूर्वजन्मों के संस्कारों के कारण बाल्य अवस्था में ही, इनको भगवान श्री कृष्ण से अत्यधिक लगाव हो गया। 8 वर्ष की आयु से ही साधना की शुरूआत हो गई। उस समय इनके परिवार वाले ‘‘आर्यसमाजी’’ थे। ये मूर्ति पूजा और गोविंद की उपासना से इनको रोकते थे। परंतु ये नींद में भी ‘‘गोविंद-गोविंद’’ पुकारते रहते इस कारण परिवार वाले इनको बहुत डांटते-फटकारते थे।

परंतु इनका तो खेल जन्म से ही शुरू हो गया था, इतनी छोटी आयु में भी ये सारा दिन ये पूछते रहते थे कि ‘‘गोविंद’’ कहाँ मिलेगा, वास्तव में श्रीकृष्ण कैसे दिखते हैं? वे कहाँ रहते हैं? अनेकों सवाल पूछते रहते। स्कूल में टीचर से, घर में माता-पिता से, गली में कोई सन्यासी आ जाता, उससे पता पूछते कि भगवान कौन है? गोविन्द कौन है? जैसे-2 आयु बढ़ती गई, वैसे-वैसे उस परमात्मा को पाने की तलब बढ़ती चली गई, ईश्वर को पाने की चाह में और अपने प्रश्नों का हल ढ़ूढ़ने के लिए ये साधु संतों का संग करने लगे। अनेको-अनेक साधु-संतों से मिले परंतु अंदर में जो तूफान उठा हुआ था, उसे शांत करने वाला कोई भी नहीं मिला। 12-13 वर्ष की आयु में ये 5-6 घंटे लगातार आँख बंद करके बैठे रहते और धीरे-धीरे 8-9 घंटे की बैठक हो गई। ध्यान भी कौन-सा करते थे। ‘‘रूप का ध्यान’’ गोविंद की मूर्ति का ध्यान, उनकी लीलाओं का ध्यान। 15-16 वर्ष की आयु में, साधु संतों के संग ये भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े। जगह-2 घूमे। केदारनाथ, बद्रीनाथ, तपोवन, उतराखंड, हिमालय, वृंदावन, मथुरा, द्वाराकाधीश, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम्, कुरूक्षेत्र इत्यादि। जहाँ किसी ने भी, कहीं भी बता दिया कि परमात्मा वहाँ मिलेगा, वहीं जाकर खोज करने लगे, परंतु इनके अंदर का तूफान अभी भी शांत नहीं हो पाया। अनेको-अनेक जगह जाकर जप, तप, व्रत, ध्यान एंव साधना सब किया। परन्तु प्राप्ति नहीं हुई, लगातार 14-14 घंटे ध्यान मग्न रहने लगे। अनेको-अनेक सिद्धियाँ मिल गई। यहाँ तक कि ब्रह्मा जी आए, विष्णु जी आये, महेश आये, देवी आई, अनेकों अनेक देवी-देवता आये, परंतु इन्हें सिर्फ गोविंद ही चाहिए था।

19 वर्ष की आयु में सन् 2002 में ये वृंदावन में थे, अचानक एक घटना घटी। एक ‘‘प्रकाश पुन्ज’’ इनके साथ-साथ चलने लगा। वो प्रकाश का गोला कभी रूप बन जाता तो कभी प्रकाश पुन्ज। इतना सुन्दर रूप था कि यहाँ मैं वर्णन नहीं किया जा सकता। उनकी व्याख्या शब्दों में नहीं की जा सकती। वो रूप स्वंय भगवान श्री कृष्ण का था, बस मैं इतना ही लिखूंगा कि जैसा मूर्तियों, मंदिरों में दिखाया जाता है, उससे काफी भिन्न है, वो रूप। उन्होंने कहा कि तुमने अब तक किसी को गुरू नहीं स्वीकारा, हम स्वंय तुम्हारे गुरू बनकर आये हैं, तुम्हें पहले शिष्य बनना होगा, उसके बाद ही एकीकार होगा। परंतु ये बात रणदीप जी को स्वीकार नहीं हुई, उन्हें बार-बार संदेह हुआ, कहीं माया की कोई चाल तो नहीं, माया उनके साथ खेल तो नहीं खेल रही। कहीं छलावा तो नहीं। लेकिन लगातार 5 दिन 5 रातों तक वही रूप उनके सामने लगातार बना रहा, एक बार तो उन्हें इतना आष्चर्य हुआ कि कहीं मैं पागल तो नहीं हो गया हूँ। आँखें बंद हों या आँखें खुली हर जगह बस वहीं रूप। पर इन्होंने इसके बाद भी नहीं स्वीकारा। अब स्थिति ऐसी हो गई थी, लगातार 2-2 दिन, 3-3 दिन लगातार दिन-रात बस ध्यान में बैठे रहते। इतने सरल हैं ये, यहाँ इन्हें बोध ही नही था कि इन्हें ‘‘साकार सिद्धि’’ हो चुकी थी। लेकिन इन्हें यही लगता रहा कि मेरी ही कोई कल्पना है। अब खेल और अच्छे से शुरू हो गया था। अब हर समय ध्यान मग्न रहने लगे।

अनेको-अनेक घटनाएं घटतीं। अनेको शक्तियों के साथ युद्ध होते लेकिन सभी हार मानकर वापिस चले जाते। गुरू गोरखनाथ, महाकाली, कबीरदास, नित्यानंद, इत्यादि से भी आमना-सामना हुआ। परंतु इन्होनें अपनी साधना नहीं छोड़ी। हर कोई रास्ता रोकने की कोशिश करता है, कहीं हमसे ऊपर चढ़ाई न चढ़ जाऐ। कोशिश की, इसे रोको इस तरह बिमार हुए कि 15 किलो वजन एक रात्रि में ही कम हो गया, सबको लगने लगा कि ये मरने वाला है, लेकिन इन्होंने हार नही मानी खेल चलता रहा। फिर एक दिन वहीं रूप फिर प्रकट हुआ, जो सन् 2002 में वृंदावन में प्रकट हुआ था। उन्होंने कहा कि आज तो मैं तुम्हें अपना शिष्य बना कर ही रहूंगा। परंतु ये बोले कि मैं तो ‘‘भगवान श्रीकृष्ण’’ को ही स्वीकार करूँगा, उन्होंने कहा कि मैं ही श्रीकृष्ण हूँ। रूप इतना लुभावना था कि अब इनको कुछ प्रभाव हुआ। इन्होंने प्रार्थना की, अगर ये सत्य है तो आप स्वंय समर्पण करवा लो और इतना सोचना था कि समर्पण हो गया। परंतु इन्होंने कहा कि मैं तुम्हारा शिष्य बन जाऊँगा, परंतु मैं अब और सुमिरन नहीं कर पाऊँगा। तुम्हें ही सुमिरन करना पड़ेगा। उन्होंने ये सब सुना और वापिस चले गए, परंतु थोड़ी देर बाद फिर आए, बोले-स्वीकार है। बस अब यहाँ से शब्द समाप्त हो गए। पूर्ण मौन हो गए, निशब्द, पूर्ण निर्विचार और उसी समय इन्हें निराकार की सिद्धि हुई। ये सब घटना सन् 2004 में घटी। कितनी काबिलियत, कितना प्रेम, कितना ध्यान, कितना समर्पण रहा होगा। इनका कि स्वंय भगवान श्रीकृष्ण इन्हें अपना शिष्य बनाने के लिए चक्कर लगाते रहे। गुरू स्वीकारने के बाद अब हर समय गुरू साथ रहने लगा। आस-पास आवाज गूंजती रहती। रणदीप, रणदीप, रणदीप, रणदीप। इन्होंने कहा कि ये क्या खेल है। फिर उस गुरूतत्व से आकाशवाणी हुई कि कबीर को भी मैं ऐसे ही पुकारता था, फिर इन्हें कबीरदास जी का वो दोहा याद आया :- ‘‘ कबीर-कबीर क्या करत है, जा जुमना के तीर। एक-एक गोपी के प्रेम में, बह गए कोटि-कोटि कबीर।।

साकार और निराकार सिद्धि होने के बाद, इन्हें आत्मज्ञान हुआ। पूर्ण जागृति हुई। ‘‘27’’ ब्रहमांड., इन्होने पार किए, गुरू ने स्वंय हाथ पकड़ कर पार करवाऐ। नानक जी, मीराबाई, दादु, नितयानंद, कबीरदास, गरीबदास, तुलसीदास इत्यादि संतों की चढ़ाई = 21 ब्रहमांड है। ये सभी जीवनमुक्त आत्माऐं है। महात्मा बुद्ध की चढ़ाई = 11 ब्रहमांड है। महुम्मद साहब की चढ़ाई = 7 ब्रहमांड. है। गुरूगोरखनाथ जी की चढ़ाई = 8 ब्रहमांड है। यहाँ से पता चलता है कि इनकी चढ़ाई कितनी ज्यादा है, इस चढ़ाई के दौरान इनका सामना सभी संतों से हुआ नानक जी, नित्यानंद जी, कबीर, महात्माबुद्ध सभी से प्रेमपूर्वक मुलाकात हुई। ‘‘गुरूपद की प्राप्ति’’:- सन् 2009 के अंदर, ब्रदीनाथ में ये घोर तपस्या में लीन थे, 20 जून 2009, को जब ये समाधि में लीन थे, ‘‘भगवान नारायण’’ प्रकट हुए, और इन्हें ‘‘‘जगतगुरू’’ का पद सौंप दिया। आकाषवाणी हुई - आज से, अभी से तुम ‘‘जगतगुरू’’ हो जाओ और लोगों को जाग्रत करो। धर्म की संस्थापना करो, अधर्म का विनाश करो। उस समय अनेको बडे- बड़े तपस्वी, सिद्ध महात्मा इस दौड़ में शामिल थे, कि वे इस पद के अधिकारी हैं, परंतु भगवान नारायण ने इन्हें चुना। क्योंकि इनकी ये भी इच्छा नहीं थी कि ये गुरू बने और ऐसे ही निष्कामी संत की आवश्यकता थी, जो समाज के बीचों-बीच रहकर, इस संसार में रहकर लोगों को जगा सके। जो अध्यात्म को एक अलग दिशा दे सके जो ऐसे मानव का निर्माण कर सके जो समाज में रहता हुआ, अध्यात्म के शिखर को छू सके।

ब्राहमण पद की प्राप्ति:-

‘‘जगतगुरु’’ का पद मिलने से पहले पूरे ब्रहमांड. में चर्चा चल रही कि एक क्षत्रिय परिवार में जन्में और इनती छोटी उम्र में (26 साल) किसी को जगतगुरु का पद कैसे सौंपा जा सकता है। परंतु इनके गुरू श्री कृष्ण जी की इन पर इनती ज्यादा मेहर थी, कृपा थी कि वो इन्हें ही सौंपना चाहते थे। बैषाखी पूर्णिमा, 2009 को अप्रैल के महीने में साक्षात् ‘‘भगवान परशुराम’’ प्रकट हुए और इन्हें ब्राहमण पद दिया। और कहा कि मैं तुम्हें अपने पुत्र के रूप में स्वीकार करता हूँ। बस अब किसी बात की कोई देरी नही थी, 20 जून 2009 को इन्हें जगत् गुरू का पद सौंप दिया गया, स्वंय भगवान नारायण द्वारा। केवल अपने गुरू के आदेश का पालन किया, इसलिऐं इन्होंने ये पद स्वीकार किया। लेकिन इन्होंने ये ठान लिया कि हम शिष्य नहीं बनाऐंगे। क्योंकि ये नहीं चाहते थे कि दुनिया इन्हें जाने, क्योंकि अपने आप में ही इनते मस्त मगन रहते थे, इतने आनंदित, हर वक्त प्रभु के नशे में मदहोश रहते थे। जून 2009 से सन् 2013 तक ये अज्ञात रहे किसी को पता नहीं चलने दिया कि ज्ञान का दीपक जल चुका है, हृदय में भक्ति मणि का उदय हो चुका है बिल्कुल साधारण बनकर संसार की भीड में छिपे रहे। गुरू ने बार-2 आदेश दिया, विनम्र निवेदन भी किया, परंतु ये बातों को घुमाते रहे। और आनंद में डूबे रहे। अब इनके गुरू ने ऐसी चाल चली की परिस्थिति पैदा करनी शुरू कर दी, क्योंकि उन्होंने देख लिया ये ऐसे नहीं मानेगा। ये जहाँ भी खड़े होते, आस-पास का माहौल चेंज होने लगता। लोगों का खिचाव बनने लगा, सबको लगता कि खास बात है कुछ, पर समझ में नहीं आ रहा था कि क्या विशेष है। अततः अगस्त, 2013 में इन्होंने अपने गुरू के आदेष का पालन करते हुए तख्तोताज पर बैठना आरम्भ कर दिया लोगों के दुख दूर करने आरम्भ किए और धर्म का प्रचार करना आरम्भ किया।
शब्द, निशान और ध्वजा की प्राप्ति :- गुरू पद मिलने के बाद इन्हें ‘‘अलग शब्द की प्राप्ति हुई’’, ‘‘अलग निशान मिला’’ और ‘‘अलग ध्वजा का रंग’’ मिला।

आगामी कार्यक्रम

पूर्णिमा प्रोग्राम

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